‘असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसा वृता:।
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनोजना:’ – (ईशावास्योपनिषद-3)

(ऐसे कुछ लोक है जहाँ कभी प्रकाश नहीं पहुँचता है, इसलिए वे तमस से घिरे है। जो कोई जीव आत्मघाती है वह मृत्यु के बाद ऐसे ही लोकों में जाता है।)

गंगा के ऊपर धुन्ध इतनी थी कि विश्वसुन्दरी पुल के खम्भों पर लटकी लाईटें सुदूर आसमान से झाँकते तारों सी नजर आ रही थीं। पुल के नीचे एक ओर मणिकर्णिका थी जहाँ से कभी-कभी धुन्ध में सुराख बनातीं चिता की आग की लपटें कौंध उठती थी, तो दूसरी ओर राजघाट का रहस्यमयी किनारा था, जिसके आगे गंगा की धारा अचानक घूम जाती है।
गंगा और उसके घाटों के ऊपर दूर तलक फैली रोशनियों का एक चमकता आवरण था जिसकी परछाईयाँ खून की बूंदों की तरह पानी के चेहरे पर अहर्निश झलमला उठती थीं।
शुक्ल पक्ष की रात का यह पहला पहर था कि जब रोशनियों से निकल, पंचगंगा घाट की सीढ़ियों से उतर कर एक बटुक मन्त्र बुदबुदाते पानी में घुसा और दोनों हाथों से पानी को अलगाते उसने एक गहरी डुबकी उसमें लगाई फिर हाथ जोड़ उतराते हुए जैसे ही आँखें बन्दकर उसने गंगा स्तुति शुरू करनी चाही कि अचानक उसका ध्यान पुल के ऊपर दिखाई दे रही एक मानुषिक छाया पर गया। लैम्प पोस्ट की रोशनी से पिघलती धुन्ध के बीच वह देखकर समझ गया कि छाया किसी स्त्री की है। उसने देखा कि स्त्री पुल की रेलिंग पकड़े थोड़ी देर ठिठकी खड़ी रही। फिर अचानक वह रेलिंग पर चढ़ी और अपनी देह को उसने गंगा में उछाल दिया। बटुक की आँखों के सामने ही लहराते हुए वह गंगा में छपाक से गिर गई। गंगा के ऊपरी जल ने पहले तो उसका विरोध किया पर काफी हलचल के बाद वह शान्त होकर आगे बढ़ चला।
बटुक के चेहरे पर भय मिश्रित आश्चर्य की रेखाएँ खिंच गईं। बेहद जल्दबाजी में उसने स्तुति पढ़ी…‘देवि सुरेश्वरी भगवती गंगे…त्रिभुवन तारिणी तरण तरंगे…शंकर मौलि विहारिणी विमले…मम् मतिरास्तां तव पद कमले..’
अधूरी स्तुति पढ़कर पानी को धकेलते हुए वह बदहवास बाहर निकला, गीले कपड़े उतारे, मढ़ी पर रखे सूखे कपड़े पहने और सीढ़ियाँ चढ़ते हुए ऊपर रोशनियों की ओर भागकर उन्ही में समा गया।
ठीक इसी समय सिपाही रहमान अली और लच्छन राम उन्हीं रोशनियों से उतरकर नीचे आए। बड़ी देर से बीड़ी फूंकता मल्लाह नाव पर बैठा उनकी ही प्रतीक्षा कर रहा था। नाव पर बैठ जब वे दोनों गंगा पर गस्त लगाने को निकले तो उन्होंने देखा कि आरतियाँ समापन की ओर जा रही थीं। राजघाट से रविदास घाट तक लगभग पाँच किलोमीटर में फैला पानी उनका इलाका था। उनकी जिम्मेदारी थी कि रोशनियों के खिलाफ, रात के अँधेरे में गंगा के पानी में किसी गैरकानूनी गतिविधि को होने से रोका जाए तथा विशेषकर विदेशी पर्यटकों को रात की उनकी मौज मस्ती में सुरक्षा दी जाये।
अपनी मौज में मल्लाह चप्पू चला रहा था। गंगा के शान्त जल में हल्की जल-रश्मियाँ झिलमिला रही थीं। मन्त्र ख़त्म हो रहे थे और घाट खाली हो रहे थे। तभी मंथर गति से बहती नाव में रहमान ने पहला पैग बनाकर लच्छन को पकड़ाया और खुद की गिलास से एक गहरा घूँट लेकर मणिकर्णिका की ओर देखने लगा। देखते-देखते उसकी आँखें चढ़ने लगीं और मन कसैला हो उठा। जलती चिताओं को देख वह हमेशा नफ़रत से भर उठता है। क्रोध जब उसके भीतर उबलने लगा तो बगल में बैठे अपने साथी सिपाही लच्छन राम को सुनाते उसने कटाक्ष किया- ‘का बे सड़ी के लच्छन राम! जरा बताओ तो सही कि जब आदमी ही मर गया तो काहे को इतना घी तेल फूंक रहे हो भाई! का जरूरत है इतना मंतर और श्लोक पढ़ने का! खर्च करने का! लकड़ी के नुकसान का! अरे सार के नाती! सीधा दफ़न काहे नहीं कर देते मिट्टी में बे, बिना किसी झंझट के?’
इतना कहने के बाद सटाक से उसने अपना गिलास खाली कर दिया और दूसरा पैग बनाने लगा।
लच्छन ने देखा कि रहमान पहली ही घूँट के बाद सुरूर में आ चुका था। यह भी समझ गया कि यह रहमान नहीं उसके भीतर का मुसलमान बोल रहा था। इसलिए उसे सहलाते वह धीरे से बोला- ‘तुम साले कटुवे हो और वही रहोगे। अबे समझो सड़ी के! ई मरण का व्यापार है। घी, तेल लकड़ी से बनिया को नफ़ा है और मंतर श्लोक से बाभन कोे सीधे मिट्टी में दफ़न कर दोगे तो ई सब इतना माल कहाँ से मिलेगा बे?’
‘तुम्हारी बात में पॉइंट है पर सड़ी के! इस चक्कर में गंगा को आखिर क्यों मैली किये दे रहे हो? वैसे ही क्या कम मैली हैं?’- रहमान की आँखों में अंगार दहक रहे थे।
उसकी इस बात का लच्छन ने हँसते हुए प्रतिवाद किया- ‘वाह बेटा! आज लगता है कि जिहाद पढ़कर आये हो!! लेकिन ये भी तो बताओ ज़रा कि जब बकरों, मुर्गों का खून बहकर गिरता है तब क्या गंगा और मिट्टी नहीं मैली होतीं क्या बे?’
लच्छन का प्रतिवाद सुन रहमान पहले तो अवाक रहा फिर अचानक उसे घूरते बोला- ‘तुम साले इन बाभनों के पक्ष में कब से खड़े हो गए! तुम्हारी जाति को तो इन्ही ससुरे ने कब से मैला उठवाया है। अपना अतीत भूल गए हो क्या साले?’
रहमान की बात शायद लच्छन के सीने में जा लगी। उसने पूरा पैग एक झटके में खाली कर दिया और सिर झुकाए न जाने किस चिन्तन में डूब गया।
लच्छन को चुप देख रहमान को एक अजीब सा यकीन हुआ…एक दिली ख़ुशी मिली। उसे इसी अवस्था में देखते हुए वह धीरे-धीरे दारू शिप करता रहा।
नाव में अब शान्ति थी। कभी-कभी गस्ती की मुद्रा में वे चौकन्ने होकर इधर-उधर देख लेते थे। पैग का बनना जारी था। बीड़ियों का कश बीच-बीच में लगता रहा और उसका लेन-देन भी होता रहा।
तभी नाव में ठक्क से आवाज हुई तो सब चौकन्ने हुए। सबसे पहले मल्लाह ने झुककर नीचे देखा। उसे वहाँ कुछ होने की शंका हुई तो उसने अपनी चाईनीज़ टार्च जलाई। उसकी रोशनी में उसने देखा कि एक शरीर नाव के साथ-साथ बह रहा था। नाव में बाहर से लगी लकड़ियों में शायद कुछ कीले उखाड़ने से छूट गई थीं और उन्ही में शायद उसका कपड़ा फंस गया था। मल्लाह चिल्लाया- ‘इंस्पेक्टर साहब! शायद कोई लाश है!!’
यह सुन रहमान और लच्छन सजग हो उठे। उन्होंने भी झुककर पानी में देखा। टार्च की लाल रोशनी में एक सुन्दर स्त्री का चेहरा झलक रहा था- मृत पर बेहद सजीव। पानी में उछलता, तैरता शरीर और लकड़ी से हल्के-हल्के टकराता सिर। माथे पर बड़ी एक गोल सी बिन्दी चमक रही थी। मांग का सिंदूर पानियों से धुल चेहरे पर फ़ैल गया था। चेहरे पर यहाँ वहाँ चिपके उसके छोटे-छोटे कण जुगनुओं से चमक रहे थे। गंगा का पानी उसके चारों ओर चक्कर काट रहा था जैसे कि उसे अपनी पनाहों में लिए रखना चाहता हो….अपने आँचल से उसे मुक्त न करना चाहता हो!
तीनों एकटक उस चेहरे को बस देखते ही रह गए। थोड़ी देर बाद रहमान को जब चैतन्यता आई तो उसने झुककर लाश की छातियों पर नज़र डाली। एक साँप वहाँ कुण्डली मारे औंधा पड़ा था। वह सिहर उठा। मल्लाह से टार्च छीन उसकी तेज रोशनी उसने साँप के ऊपर डाली। सांप रोशनी की ओर फन फैलाये उठने लगा। रहमान पीछे हट गया। तब मल्लाह ने एक चप्पू से ठक-ठक की। आवाज सुन साँप पीछे हटा और अचानक वह उस देह से सरकता पानियों में फिसलता चला गया और फिर बहते जल में डूबता चला गया।
साँप के जाने के बाद रहमान ने बेहद सावधानी से अपना दूसरा हाथ लाश की छाती पर रखा और उसे काफी देर तक वह सहलाता और दबाता रहा। फिर लाश के होठों पर अपने दाहिने अंगूठे को फिराते बोला- ‘एकदम जवान औरत है सालों जल्दी बाहर निकालो इसे शक्ल से तो लगता है कि जरूर कोई ब्राह्मणी या राजपूतानी है शायद जिन्दा भी हो अभी साली।’
रहमान की बात सुन मल्लाह ने जलती आँखों से उसे घूरा पर बोला कुछ नहीं। फिर तीनों ने किसी तरह से लाश को पानी से निकाला और नाव पर एक ओर लिटा दिया। रहमान लाश की बगल में आकर बैठ गया और उसने कई दफ़े उसे ऊपर नीचे से दबाया पर जीवन के लक्षण उसे उसमें नजर न आये। उदास आवाज में वह बोला- ‘लगता है कि मर गई है साली।’
लाश का मुआयना करने के बाद लच्छन की राय हुई कि तुरन्त चलकर थाने में इसकी इत्तिला देकर सुपुर्दगी दिखा देना चाहिए। पर रहमान ने आँख मार कर उसे बरजा- ‘इतनी हड़बड़ी का है बे! रविदास घाट तक गस्त लगाकर वापस आएँगे फिर इत्तिला देने चलेंगे। दारू भी तो ख़त्म कर लेने दे भाई!’
रहमान की बात मान ली गई और नाव आगे बढ़ चली। इसके बाद पूरे रास्ते कोई कुछ न बोला।
इस बीच दिनभर के श्रम से चूर मछुवारे अपनी नावें घाट किनारे बाँधने लगे थे। देसी ठर्रे से थकान मिटाते मण्डलियाँ धीरे-धीरे जमने लगीं थीं। ढोलक की थाप से रार करते मलहिया के शब्दों की गूँज, अनुगूँज गंगा में फ़ैल रही थी…..
डोंगा डोले
राजघाट के तीर
एक परी परदे से निकली पहने पंचरंग चीर…….डोंगा डोले
डोंगा डोले
मीर घाट के तीर
आँखें टक-टक छाती धक-धक
कभी अचानक ही मिल जाता दिल का दामनगीर………डोंगा डोले
डोंगा डोले
आनन्दमयी के तीर
नाव बिराजी केवट राजी
डाँड़ छुई भर, बस आ पहुँची
संगम पर की भीड़….डोंगा डोले
डोंगा डोले
रविदास के तीर
मन मुसकाई उतर नहाई
आगे पाँव न देना रानी पानी अगम-गम्भीर…डोंगा डोले
डोंगा डोले
पंचगंगा के तीर
बात न मानी होनी जानी
बहुत थहाई हाथ न आई जादू की तस्वीर…डोंगा डोले
डोंगा डोले
असी घाट के तीर
इस तट उस तट पनघट मरघट बानी अटपट
हाय, किसी ने कभी न जानी माँझी-मन की पीर….डोंगा डोले
डोंगा डोले
नित घाटन के तीर
डोंगा डोले ‘डोंगा डोले’ डोंगा डोले’
धुन में खोए उन तीनों को पता ही न चला कि कब वे गस्त लगाकर वापस राजघाट लौट आये। पर जैसे ही मल्लाह नाव को मुख्य घाट के किनारे लगाने लगा तो रहमान ने अचानक हुड़का उसे- ‘सड़ी के! पगला गया है क्या? यहाँ मत लगा। अड्डे पर ले चल’
लच्छन चौंका पर बोला कुछ नहीं। अड्डे का मतलब था- पीने-खाने की एकान्त जगह। प्राय: रोज रात की गस्त के बाद वे इसी जगह आकर थोड़ी देर सुस्ताते थे, बची दारू ख़त्म होती थी और रोटियों के साथ नए नए गोस्त का आनन्द उठाया जाता था। मुख्य घाट से यह थोड़ी ही दूर था। शहर की रोशनियाँ यहाँ नहीं पहुँचती थी। अँधेरा होने के कारण किसी के देखने का खतरा भी यहाँ न था।
थोड़ी ही देर में नाव अड्डे पर आ लगी। मिलकर लाश को नीचे उतारा गया और उसे घास में पटक दिया गया।
थके मल्लाह ने जेब से बीड़ी निकाली और बैठकर उसके गहरे कश लेने लगा। उसकी निगाहें बार-बार लाश को देख उठती थीं। अचानक उस पर रहमान गरजा- ‘बैठा क्या है बे सड़ी के! दौड़कर जा और आज जोरदार मछली बनवाकर इत्मीनान से ले आ और सुन! करीम के यहाँ से ही लाना, कहना उससे कि रहमान भाई ने बोला है।’
मल्लाह तुरन्त उठा और बीड़ी पीते हुए कच्चे रास्ते से ऊपर रोशनियों की ओर चढ़ने लगा।
धुन्ध अब छँट चुकी थी और शुभ्र अर्ध चाँदनी फ़ैल गई थी। घाट सुनसान हो चले थे। पुल पर शोर कम हो गया था।
लच्छन बोला- ‘यहाँ रुककर क्या अंडे दोगे बे! लाश की सुपुर्दगी दिखाकर बेफ़िक्र हो लिया जाता तो अच्छा रहता। कोई वीआईपी केस हुआ तो फंस जायेंगे।’
उसे अनसुना कर रहमान ने जेब से एक अद्धा निकाला और बोला- ‘वीआईपियों की ऐसी की तैसी बे। यहाँ के व़जीर हम हैं। पहले दारू ख़त्म करेंगे, फिर मछली खायेंगे, उसके बाद चलेंगे। वैसे अभी दरोगा जी के आने में भी टाइम है।’
लच्छन चुप लगा गया क्योंकि रहमान पर दरोगा जी अधिक यकीन करते थे।
वे दोनों एक पत्थर पर चढ़कर बैठ गए। लाश वहाँ से नहीं दिख रही थी। वह नीचे घास पर पड़ी थी। पत्थर पर अखबार बिछा लिया गया और उस पर मूँगफली के दाने बिखेर दिए गए। एक-एक कर पैग बनने लगे। मूँगफली के दानों के साथ उसे गटका जाता रहा। रहमान के स्मार्ट मोबाइल से भोजपुरी के सुर फूटने लगे थे….गोरिया चाँद के अंजोरिया जईसन गोर बाड़ू हो…तोहर केहू नइखे जोड़ तूं बेजोड़ बारू हो…
बीड़ियों के धुएँ से उनके ऊपर एक धुन्ध सी बनती उठ रही थी जो ऊपर की रोशनियों को ढँक रही थी।
अचानक, मोबाइल में चलते गाने को बन्द करते तथा बेहद लटपटाती आवाज में रहमान बोल उठा- ‘राज किया है हमने इस देश पर लच्छन सड़ी के। हमारे पुरखों ने ही इन बाभनों ठाकुरों को उनकी औकात बताई थी। इनको लातों से मारा है हमने। इनकी बहन बेटियों को जाँघों के नीचे दबाकर रखा है अरसे तक।
फिर लच्छन को अपनी अंगार सी आँखों से उसने घूरा और उसका कालर पकड़ बोला- ‘और तुम सड़ी के जो आज ये मौज उड़ा रहे हो न वह भी हमारे पुरखों की बदौलत ही है। नहीं तो साले खेत जोतते और अपनी माँ-बहन मरवाते इन बाभन ठाकुरों से। समझे कि नहीं बे!’
लच्छन चुपचाप उसे सुनता रहा।
‘साला, इस देश को तिनका-तिनका जोड़ा हमने, खून बहाया हमने और आज बादशाहत का मज़ा लेंगे ये ठाकुर बाभन’- बेहद गुस्से में इतना कह अचानक रहमान उठा। लच्छन को उसने वहीं बैठने और पीते रहने को कहा। पत्थर से कूद कर वह नीचे उतर आया। पीछे झाड़ियों में जाकर इत्मीनान से बैठकर उसने पेशाब की और फिर धीरे से उधर सरक गया जिधर घास पर लाश पड़ी थी।
अपनी बिल्ली जैसी चौकस आँखों से वह लाश को सिर से पैर तक देख रहा था। पैर से गर्दन तक लाल रंग की साड़ी में लिपटी एक कमनीय पर मृत स्त्री की काया उसके सामने लेटी थी। बहुत हलकी चाँदनी में दिखता उसका चेहरा बेहद शान्त, सुन्दर और जीवन्त-सा लग रहा था। उसे देख अपने भीतर की उत्तेजना से वह काँपने लगा था। वह उसके बिलकुल पास जाकर बैठा गया। लाश के स्तनों पर जब उसने अपना भारी हाथ रखा तो उसे अपनी साँस रुकती सी लगी। पपड़ाये होठों पर लिपिस्टिक की क्षीण रेखाएँ अब तक नजर आ रही थीं। अपनी उँगलियों से उन्हें वह मसलने लगा। हवस की आग अब उसमें प्रचंड हो चुकी थी। बदहवास एक-एक कर वह लाश के कपड़े उतारने लगा। माथे की बिन्दी को झपट्टा मारकर उसने उखाड़ा और एक ओर फेंक दिया। एक नंगी और ठण्डी खुली देह अब उसके सामने पड़ी हुई थी- गोरी, चमकती और निष्पंद उसने शीघ्रता से खुद को निर्वस्त्र किया और लाश के ऊपर लगभग कूदते हुए उसे दबोच लिया।
उसकी धौंकनी धीरे-धीरे बढ़ने लगी थी। अजीब तरह की आवाजें निकालकर वह उस मरी हुई स्त्री की लाश को झिझोंड़ रहा था…उसके होठों को अपने दांतों से काट रहा था…शरीर को खरोंच रहा था…अपने को उसके भीतर यहाँ वहाँ घुसेड़ रहा था…स्तनों को बेतरह मसल रहा था।
बत्तियाँ बुझ चुकी थीं पर गंगा के पानियों में उफान आने लगा था। जल-रश्मियाँ शोलों सी भड़क उठी थीं। लगभग ज्वार सा आया प्रतीत होने लगा था। किनारे के पत्थरों पर पछाड़ खा-खाकर पानी गिर रहा था।
रहमान की देह में न जाने कहाँ से इतनी ताकत आ गई थी। अपनी असंतुलित साँसों के बीच वह उस मृत शरीर के सिर को बार-बार जमीन पर पटकता और काबू में करने का प्रयास करता रहा।
अचानक तभी एक हाथ में झोला लिए मल्लाह हाफते हुए वापस लौटकर आया। हल्की चाँदनी में, लाश के ऊपर रहमान को लेटे हुए उसने देख लिया था। यह देख वह सन्न रह गया। उसकी आँखों में एक अजीब सा डर फ़ैल गया था। झोला उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ा।
थोड़ी देर देखने के बाद अपनी आवाज में थोड़ा दम लाते वह बोला- ‘इ का कर रहे हैं साहब! मरे हुवों के साथ ऐसा नहीं करते मालिक, ये पाप है हुजूर।’
मृत शरीर को मसलते रहमान गुर्राया- ‘मछली रख और यहाँ से भाग ले सड़ी के। नहीं तो जान ले कि इसके बाद तेरा पिछवाड़ा भी दुखाऊंगा…और सुन! किसी से बोला तो गर्दन रेत दूँगा….जा, भाग जा..।’
पुलिसिया रौब के आगे मल्लाह दब गयाऊ उसने चुपचाप घास में गिरी खाने की पोटली को उठाकर पत्थर पर रख दिया और मुँह झुकाए वापस चला गया।
हवस शान्त कर रहमान लाश से अलग हुआ। खड़े होकर उसने एक लम्बी अंगड़ाई ली और गुस्से में लाश की जांघ पर खींचकर एक लात मारते हुए बोला- ‘साली हिन्दुई…जिन्दा होती तो ज्यादे मज़ा देती।’
फिर खाने की पोटली लेकर बन्दर की तरह उछलकर वह पत्थर पर चढ़ गया और लच्छन के पास आकर बैठ गया।
लच्छन काफी देर उसे घूरता रहा। रहमान इस दौरान नजरें बचाते चुप रहा और अपना बचा पैग पीता रहा, मूँगफली चबाता रहा।
थोड़ी देर बाद लच्छन ने उलाहना दी- ‘तुम साले कटुआ हो और वही रहोगे! मरी हुई को भी नहीं छोड़ा सड़ी वाले ने।’
उसकी बात का रहमान पर कोई असर नहीं पड़ा। उसने एक जोरदार ठहाका लगाया। जवाब में लच्छन भी हल्के से हँसा। फिर रहमान ने खाना लगाया और कुत्तों की तरह वे दोनों करीम की दुकान से बनकर आई स्वादिष्ट मछली पर टूट पड़े।
खाना ख़त्म कर वे पत्थर से उतरे और लाश के पास आ खड़े हुए। लाश निर्वस्त्र पड़ी थी- धवल, छरहरी और निष्पंदे लच्छन उसे बेतरह घूर रहा था। रहमान ने तत्काल उसकी वासना ताड़ ली और लगभग ललकारते हुए उसे उकसाया- ‘देखता क्या है सड़ी के! कूद जा…गंगा माता हैं…जी भर नहा ले….जन्नत मिलेगी….पुन्य मिलेगा…और सुन! तेरे पुरखों को सुकून भी।’
लच्छन कुछ देर किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रहा। उत्तेजना उसके शरीर में भी फ़ैल रही थी। अपने पर काबू वह नहीं रख पा रहा था। सहसा वह भी कपड़े उतारने लगा और ‘जय बजरंग बली’ कहता हुआ रहमान के सामने ही लाश पर चढ़ गया। मृत शरीर को उसने दबोच लिया और बेतरह झिझोड़ने लगा।
लच्छन की धौकनी जब लय में आ गई तो ‘जय हो सड़ी के’ कहता हुआ रहमान गंगा जल से हाथ धोने नीचे उतर गया। पानी से रगड़-रगड़ कर वह हाथ छुटाता गया और बेहद काइयांपन से चिल्लाता रहा- ‘हर-हर गंगे….हर-हर गंगे……..सड़ी के..!!’
और जब हाथ धोकर वह उठा तो वहीं से चिल्लाया- ‘अबे लच्छनवा! काम लगा चुका हो तो लाश को बाँध ले सड़ी के!! दरोगा जी आ गए होंगे। निकल जल्दी।’
रहमान की पुकार सुन लच्छन की धौंकनी और बढ़ गई। वह स्खलन की सीमा पर पहुँच ही चुका था कि अचानक दर्द में लिपटी एक महीन आवाज कहीं बहुत भीतर से आकर उसके कानों से आ लगी- ‘भैया..!!’
आवाज सुन लच्छन को मानों काठ मार गया। उसकी देह थिर हो गई। चौंक कर उसने अगल-बगल देखा। कहीं कोई न था। उसे लगा कि ऊपर मल्लाहों के किसी घर में अपने भाई को किसी बहन ने पुकारा। उसने अनसुना किया और फिर अपनी हवस में डूब गया।
गहरी उत्तेजना में अब लाश का दाहिना कान उसके मुंह में था और धौंकनी जारी थी। सहसा फिर वही आवाज उसके कानों से टकराई- ‘भैया!! मुझे आग दे देना!!’
आवाज बहुत साफ़ और दर्द से भरी थी। अबकी बार लच्छन उसे अनसुना न कर सका। हड़बड़ा कर वह उठ बैठा। अचानक उसे लगा कि जैसे यह आवाज उसके ही कहीं बहुत भीतर से आई और तब उसे अचानक ही याद हो आई लगभग पंद्रह वर्ष पुरानी वह बाते चढ़ते जाड़े का यही वह महीना था जब गाँव के ही छोटे पंडित जटाशंकर ने उसकी नाबालिग बहन रामवती का गन्ने के खेत में बलात्कार किया था। असहनीय दर्द से छटपटाती वह किसी तरह भागकर घर लौटी थी। रोती बहन को देख उसका खून खौल उठा था। वह बरछा लेकर बदला लेने के लिए घर से निकल ही रहा था कि अम्मा ने उसके पैरों को जकड़ लिया और जाने न दिया था। वह मन मसोस कर रह गया था। अगली रात लगभग काठ मारी हुई, कम्बल में लिपटी बहन उसके पास आई और बोली- ‘भैया! खेतों पर जाने से पहले मुझे आग दे देना!!’ यह सुन पहले तो वह सकपकाया पर बाद में उसे बात कुछ समझ में आई तो उसने जल्दी से गोइंठा जलाया और उसका सुलगता एक हिस्सा अन्दर बहन को दे आया। उसे बाद में अम्मा से पता चला कि राक्षस पंडित ने अपने नाखूनों से बहन की छाती में गहरे घाव कर दिए थे। उन घावों की सिकाई के लिए ही बहन ने वह आग मांगी थी।
याद से लच्छन जब बाहर आया तो एक घनी उदासी से उसका चेहरा घिरा हुआ था। उसने जेब से मोबाइल निकाला और उसकी रोशनी उसने लाश के चेहरे पर डाली। स्थिर चेहरा हलके नीले रंग में सना भभक रहा था। उसने लाश को हिलाया, पलटा। कहीं कोई हरकत न हुई। उत्तेजना और डर उसके भीतर से अभी पूरी तरह से ख़त्म नहीं हुए थे।
उसका रस-भंग हो चुका था। उसने जल्दी-जल्दी कपड़े पहने और घबराया सा रहमान के पास पहुँचा। उसने उसे आवाज के बारे में बतायो रहमान थोड़ी देर के लिए तो चौंका पर फिर उसका हाथ पकडे़ हुए ऊपर आया। उसने देखा घास पर लाश निस्पंद पड़ी थी। रहमान ने उसे कई ठोकरें मारी। पर कहीं कोई हरकत न हुई। तब लच्छन को देखकर वह फिक्क से हँसा। फिर रहमान ने उससे उतारे कपडे़ उस पर फिर लपेटने शुरू किये। कसकर उसे रस्सी से बाँध दिया। लच्छन अभी भी डर से काँप रहा था। रहमान ने उसे डाँटा- ‘सड़ी के! बाभनों ने यही सब भूत प्रेत का डर फैला कर तुम चूतियों को अरसे से अपनी सेवा में लगा रखा है। इसीलिए कहता हूँ कि एक बार कलमा पढ़ ले, बुत-फरोशी छोड़ दे और जिन्दगी का मज़ा ले। अच्छा चल, अब इसे उठाने में मेरी मदद कर सड़ी के।’
रहमान ने लाश का सिर पकड़ा और लच्छन ने पाँव। लेकिन रहमान लाश लिए जब नीचे पानियों की तरफ जाने लगा तो आश्चर्य से लच्छन ने टोका उसे- ‘उधर क्यों जा रहे हो? थाने में इसकी सुपुर्दगी नहीं दिखानी क्या?’
‘एकदम बुड़बक हो तुम साले’- कहते हुए रहमान ने समझाया उसे- ‘अपने सुबूत उसके भीतर छोड़ चुके हैं हम दोनों। सुपुर्दगी दिखाई तो पोस्टमार्टम होगा, फिर हाई लेबल जाँच होगी और फिर हमें फांसी होगी साले। इसलिए चुतियापा छोड़ और चल किसी पत्थर से बाँध गंगा में बोर दें इस सड़ी वाली को।’
यह सुन लच्छन भीतर से सहम गया पर यन्त्रवत रहमान का साथ देने लगा।
किनारे पहुँच लाश की कमर में दोनों ने एक मोटी रस्सी बांधी और उसके दूसरे सिरे से एक भारी पत्थर को लपेट दिया। फिर लाश को पानी में धकेल दिया। धीरे-धीरे वह मृत देह पानी के तल में डूबती चली गई।
नीचे, घाट किनारे गंगा के पानियों में हिलती नाव पर लेटे मल्लाह ने उन दोनों को ऊपर रोशनियों की ओर बेफ़िक्र चढ़ते जाते देखा। उसे वे दोनों दो जीवित प्रेत से नजर आये..खूंखार…मुद्खोर.. उसके देखते देखते ही वे ऊपर, शहर की रोशनियों में समा गए।
दूर तलक फैली उन रोशनियों से मल्लाह को घिन हो आई। उसे लगा कि जैसे गंगा के ऊपर एक नरक बजबजा रहा हो…रोशनियों का नरक….जहाँ मुर्दाखोर, नरभक्षी जंगली जानवर रहते हों। उसे उबकाई सी आने लगी। मृत स्त्री का चेहरा उसके ज़ेहन में घूमने लगा। भरे मन वह बुदबुदाया- ‘आहि रे बिटिया! कुछ ना मिला। न आग, न दाग और ना ही धारा’ फिर हाथ मलते मन ही मन वह उन दोनों को बड़ी देर तक सरापता रहा। दु:ख में धीरे-धीरे उसकी आँखें मुंदती गईं। मलहिया गाने को उसका मन न हुआ। उसके सीने से कबीर के दर्द की धुन अनायास फूट पड़ी…..साधो ई मुर्दन के गाँव…पीर मरे पैगम्बर मरिहें, मरिहे जिन्दा जोगी…राजा मरिहें परजा मरिहे, मरिहें वैद और रोगी……कहे कबीर सुनो भाई साधो, भटकि मरे मत कोई…….. बेहद दु:ख में न जाने कब तक वह बुदबुदाता रहा….रे भाई! भटकि मरे मत कोई …रे भाई!!…..
(लेखक बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर विवि, लखनऊ के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष हैं।)