‘घर छोड़ो, दुनिया घूमो, मजदूरी करते हुए’ राहुल सांकृत्यायन के प्रसिद्ध ग्रंथ “घुमक्कड़शास्त्र” के इस सूत्र ने एक किशोर के मन-मस्तिष्क को इस प्रकार उद्वेलित किया कि वह नाते-रिश्तेदारों से किराए के पैसे जुटा, छोटी सी संदूकची में मित्रों के सहयोग से मिले कुछ जोड़ी कपड़े, एक कंबल, तीन पुस्तकें और माँ की फ्रेम जड़ित तस्वीर लेकर अडिग मन-संग चल पड़ा दुनिया घूमने। मजदूरी करके पढ़ाई की और कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी में प्राध्यापक बन बैठा। यह साक्षात्कार, मेधा के प्रखर, संकल्पों के प्रति अडिग और मनुष्यता के लिए अहर्निश संघर्षरत ऐसे व्यक्ति पर केंद्रित है जिहोंने हिंदी भाषा और साहित्य ही नहीं बल्कि विश्व भाषा-साहित्य के संवर्धन में अपनी अग्रणी भूमिका निभाई है। लोकसाहित्य और भाषा-विज्ञान सम्बन्धी अनेकों शोध-कार्य किये हैं जिसके लिए उनका नाम अनेक परिचय ग्रंथों में (encyclopedia of Hindi literature, who’s who among indian writers-sahitya akadami, new delhi, directory of American scholars, international biographies, Cambridge, UK) सम्मिलित है। अभी हाल ही में चार भागों में आपकी आत्मकथा आई है जो नि:संदेह भविष्य के शोधार्थियों के लिए, साहित्य-अनुरागियों के लिए किसी अमूल्य निधि की भाँति ही है। कई-कई आंदोलनों के सक्रिय कार्यकर्ता और निष्पक्ष-निर्भीक व्यक्तित्व के धनी आदरणीय ‘वेद प्रकाश वटुक’ जी से यह बातचीत मुझे आत्ममंथन व आत्म परिष्कार हेतु प्रेरित करती है। ईश्वर से प्रार्थना है कि उनकी लेखनी सतत सक्रिय रहे और लोकमंगल की भावना से अनुप्राणित रहे -सुमन)
– सबसे पहले तो यही जानना चाहूँगी कि अमेरिका जाने का सुयोग कैसे बना?
जीवन में अनेक घटनाएँ अप्रत्याशित होती हैं। अमेरिका जाना भी उसी प्रकार की ही एक घटना थी। मेरा कोई सुविचारित ‘अमेरिकन ड्रीम’ यानि ‘रैग्स टू रिचिज (rags to riches) विपन्नता से सम्पन्नता’ की प्राप्ति नहीं था। प्रश्न तो यह है, मैं भारत से क्यों गया? एम.ए., प्रभाकर, साहित्यरत्न, सहित्यालंकार आदि उपाधियाँ (प्रथम श्रेणी) प्राप्त कर तलाश थी एक नौकरी की। वह सुगम न थी। दो संकट सामने थे। एक तो यह कि धन का अभाव, जिससे नौकरी खरीदी जा सके। दूसरा – मेरे स्वतंत्रता सेनानी पूज्याग्र स्व. सुंदरलाल जी के आदर्श। 1921 के असहयोग आंदोलन में पहली बार 15 वर्ष की आयु में जेल गए, मेरे पैदा होने से 21 वर्ष पूर्व और स्वतंत्र भारत में आपातकाल के दौर में 18 मास की एकाकी कोठरी में वाराणसी जेल में सत्तर वर्ष की आयु में उन्होंने सजा काटी। 1931 में वे जवाहरलाल नेहरू जी के साथ में बरेली जेल में क़ैद थे। पर उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष को कभी भुनाया नहीं। फकीरी में अमीरी जी। सब नेताओं नेहरू, पंत जी, चरण सिंह, रफ़ी अहमद किदवई, जयप्रकाश नारायण, विनोबा भावे आदि के सहयोगी रहकर भी स्वयं या परिवार के लिए कुछ नहीं माँगा। अत: उनके नाम का उपयोग मैं भी नहीं कर सकता था। न धन न सिफारिश – दोनों मार्ग बंद। तो क्या करूँ?
– तो क्या मजबूरी में जाना पड़ा विदेश?
नहीं… हुआ यह कि जब सातवीं कक्षा में पढ़ता था तो मेरे पूज्याग्रज के एक मित्र ने मुझे राहुल सांकृत्यायन की दो पुस्तकें पढ़ने को दी थीं।’ ‘घुमक्कड़शास्त्र’ और ‘साम्यवाद ही क्यों?’ उनका गहरा प्रभाव पड़ा ‘घुमक्कड़शास्त्र’ का संदेश था – घर छोड़ो, दुनिया घूमो, मजदूरी करते हुए। तो निर्णय ले लिया, नौकरी नहीं करूंगा, दुनिया देखूँगा, मजदूरी करूंगा विदेशों में। भारत में शिक्षित व्यक्ति के लिए हाथ से काम करना हेय है, कुल-गौरव में कलंक। श्रम-निष्ठा की बात भले ही हम करें। विदेशों में ऐसा नहीं है।
निर्णय ले लिया। उन दिनों इतना आसान नहीं था सब कुछ। पासपोर्ट बनने में ही सौ झंझट, फिर विदेश जाने का किराया। विस्तार में न जाकर इतना ही कहूँगा कि किसी तरह पासपोर्ट बन गया महीनों की भागदौड़ के बाद, जब एक ग्रामीण जमींदार ने मेरी गारंटी ली (नागर अमीर लोग तो ऐसे पागल की गारंटी क्यों लेते?) मैंने सबसे पहले ब्रिटेन जाने का विचार किया पानी के जहाज से जिसका किराया आठ सौ बयालीस रुपये था। कभी देखे नहीं थे इतने रुपये उस जमाने में। मैंने अपने एक मित्र से एक महीने के लिए साइकिल माँगी। कौन मुझे दस, पंद्रह, बीस रुपये दे सकता था, उनकी सूची बनाई। फिर साइकिल से कभी सोलह कभी बीस कभी अस्सी किलोमीटर जाकर पैसे इकट्ठे करने लगा। किराए के पैसे एकत्र हो गए। लखनऊ जाकर पासपोर्ट बनवाया और 16 अक्तूबर 1954 की प्रात: बम्बई पहुँच गया।
उस समय तक मैं परिवार के सभी सदस्यों की भाँति खादी का कुर्ता-धोती पहनता था। मित्रों की मदद से कुछ जोड़ी कपड़े और एक कंबल मिल गया था। इसके अतिरिक्त मेरे पास सामान में तीन पुस्तकें- एक उर्दू काव्य-संग्रह, एक गुरुदेव रवींद्रनाथ की 800 पृष्ठों वाली बंगाली कविता-पुस्तक ‘संचयिता’ और एक (स्व. पिताजी तो मुझे नौ वर्ष की आयु में ही छोड़कर स्वर्गवासी हो गए थे) माँ का एकमात्र चित्र फ्रेम में। एक छोटी सी संदूकची में था यह सामान।
लंदन में मेरे एक मित्र थे – नारायण स्वरूप शर्मा। (बाद में वे चार वर्ष जनसंघ टिकट पर सांसद भी चुने गए) उन्हीं के द्वारा मुझे पेइंग गेस्ट के रूप में एक कमरा मिला।
लंदन में मेरे पास दस शिलिंग थे (यानि साढ़े छ: रुपये) मित्र नारायण ने उन दिनों लंदन में मात्र भारतीय खाद्य-पदार्थ बेचने वाली दुकानों में से एक के मालिक से बात कर ली थी कि वे मुझे पाँच पाउंड सप्ताह के वेतन पर रख लें। पर समस्या कपड़ों की भी थी। उन दिनों मजदूरों को भी कोट-पैंट-टाई पहनना जरूरी था। ऐसे कपड़े मेरे पास नहीं थे। मैं था भी बहुत पतला -दुबला। सौभाग्य से मेरे ही कद-काठी के एक सज्जन भारत लौट रहे थे। वे अपना सामान बेच रहे थे। उन्ही से एक पाउंड (नारायण से उधार लेकर) सूट-टाई खरीद ली और काम शुरू कर दिया।
कभी रेस्तरां में, कभी भारतीय दूतावास के रसोईघर में, कभी कैनिग फैक्ट्री में, कभी ट्रैवल एजेंसी में, कभी अस्पताल में, गर्ज की हर प्रकार की मजदूरी के बीच मैंने लंदन विश्वविद्यालय में शोधकार्य शुरू किया – भारतीय दर्शन, लोकसाहित्य और रूसी भाषा अध्ययन।
विश्वविद्यालय में मेरी भेंट एक अमेरिकन छात्रा से हुई, जो मानवशास्त्र में एम.ए. कर रही थी। मैं प्राय: श्वेत महिलाओं से दूर ही रहता था, हाथ भी नहीं मिलाता था। पर मेरे उसी पिछड़ेपन, गँवार व्यवहार और फैशन विहीन होने से वह मेरी तरफ आकर्षित हुई और मेरी सारी बेरुखी सहते हुए तब तक शालीन व्यवहार करती रही – अप्रत्यक्ष सेवा भी – जब तक मेरा मन जीत न लिया। मैत्री, प्रेम और विवाह। उसके एम.ए. करने के बाद उच्च अध्ययन के लिए हम अमेरिका चले गए।
तो यह है अमेरिका जाने का सुयोग। वह रूसी होती तो हम रूस चले जाते। न अमेरिका का मोह इसमें कारण था, न दैन्य से धनाढ्यता का अमेरिकन स्वप्न।
– उन दिनों अमेरिका में हिंदी भाषा और साहित्य की क्या स्थिति थी?
मैं अमेरिका 1958 में (चार वर्ष के लंदन प्रवास के बाद) क्रिसमस की पूर्व संध्या पर पहुँचा था। उन दिनों सारे अमेरिका में बीस हजार भारतीय थे। (आज तो तीस लाख से ऊपर हैं) 1966 से पहले, केवल सौ भारतीय ही स्थायी रूप से अमेरिका में जाकर बस सकते थे। अप्रवास नियमों में सुधार होने पर ही वह कोटा खत्म हुआ। हजारों भारतीय जाने लगे। उन बीस हजार के अतिरिक्त छात्र थे जो उच्च अध्ययन कर रहे थे, कुछ व्यापार के सिलसिले में आते-जाते और कुछ धार्मिक गुरु थे। अत: भाषा-साहित्य कज बात करना ही निरर्थक है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय में उस समय हम तीन छात्र थे जिनका हिंदी-साहित्य से संबंध था। उनमें दो – कृष्ण बलदेव वैद और गोविंद सिंह कथाकार थे और मैं कविता लिखता था। कृष्ण बलदेव अंग्रेजी में लिखते थे, अंग्रेजी में पीएचडी कर रहे थे। हम तीनों ही अपनी अस्मिता के रक्षार्थ हर मास गोष्ठी करते थे। जैसा भी मौसम हो, वर्षा, हिमपात, हम निष्ठापूर्वक मिलते थे। अपनी रचनाओं का पाठ करते थे।
हिंदी का समुचित अध्ययन 1959 में अमेरिकन केंद्रीय सरकार के करोड़ों डॉलर के अनुदान के साथ चुने हुए बीस श्रेष्ठ विद्यालयों में आरम्भ हुआ। उसमें भी मूल कारण था राजनैतिक। हिंदी को विश्व की उपेक्षित भाषा में से एक माना गया था – भारतीय भाषाओं में उन्हीं विश्वविद्यालयों में उर्दू, तमिल, तेलुगु – कहीं कहीं बंगाली भी। चीनी, जापानी, रूसी, हिब्रू, अरबी आदि के साथ कुछ विश्वविद्यालयों को अफ्रीकन भाषाओं को पढ़ाने के लिए अनुदान दिए गए, ये सारे रक्षा विभाग के बजट से आते थे। स्पेनिश, जर्मन, पोर्तगीज़, फ्रेंच तो हाईस्कूल में भी पढ़ाई जाती रही हैं। इन सब भाषाओं में हिंदी पढ़ने वालों की संख्या सबसे कम रही है। गैर भारतीयों में हिंदी पढ़ने वाले तब भी चार-पाँच सौ छात्र थे, आज भी उतने ही हैं। स्पेनिश-जर्मन आदि तो लाखों हैं, रूसी भी चालीस हजार (आज भारतीयों को मिलाकर भी कुछ हजार ही हैं सारे देश में।) भारतीय तो एक विदेशी भाषा स्नातक होने के लिए जरूरी है इसलिए हिंदी लेते हैं, हिंदी- प्रेम के लिए नहीं।
विगत पचास वर्षों में अमेरिका में जितने पीएचडी हिंदी में हुए हैं, उनमें शायद ही कोई भारतीय मूल का हो।
आरम्भ में हिंदी अध्यापन के लिए भारत से दो-दो वर्ष के लिए अतिथि प्राध्यापक बुलाये जाते रहे। प्रभाकर माचवे, विद्यानिवास मिश्र, अज्ञेय जी, इंदु प्रकाश पांडेय आदि।
– अपनी सृजनात्मकता से पहला साक्षात्कार कब हुआ?
मेरी पृष्ठभूमि ऐसी रही है कि जैसे ही होश संभाला, सृजनात्मकता विरासत में मिली। पिताजी समाज-सुधारक थे, आर्यसमाजी। हमारे क्षेत्र में, हमारे गाँव में आर्यसमाज मंदिर के संस्थापकों में प्रमुख। पहले प्रधान। हर वर्ष वार्षिकोत्सव में देशभर से प्रसिद्ध भजनोपदेशक आते – दिल्ली से सिद्धगोपाल, प्रकाश अजमेरी, कुंवर सुखलाल, आर्य मुसाफिर, भीष्म ब्रह्मचारी आदि। उनके प्रवचन-गीत सुनने लगा। भैया की गोद में तीन साल की उम्र से ही राष्ट्रीय गीत। दूसरे भाई रामनिवास विद्यार्थी मिडिल स्कूल में अच्छी कविता करने लगे थे। किशोर अवस्था में निराला जी को भी मुग्ध कर दिया था। बाद में तो वे वेद, उपनिषद, गीता के अनुवादक हो गए।
मैं भजनोपदेशकों के भजन सुनकर गुनगुनाने लगा उन्ही की तर्ज पर। पाँचवीं कक्षा में भैया राम ने छंदों का ज्ञान कराना शुरू किया तो उस प्रकार की पहली कविता – पीयूष वर्ण छंद में लिखी और कवि होने के दम्भ में ‘वटुक’ उपनाम रख लिया।
– पहली प्रकाशित रचना कौन सी थी?
हाईस्कूल में ‘बालवीर’ नामक मासिक पत्रिका में प्रकाशित लेख कॉलेज मैगजीन के अतिरिक्त ‘नवभारत टाइम्स’ जैसे पत्रों में लेख, कविताएँ, मेरठ के कवियों के संकलन में कविताएँ, फूल-पत्ती ग्रंथ में 1953 में।
पुस्तक रूप में पहली प्रकाशित कृति ‘त्रिविधा’ जिसमें लंदन में लिखी कविताएँ थीं, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी से 1965 में छपी थी।
– गद्य और पद्य दोनों ही विधाओं में आपने प्रचुर कार्य किया है, सर्वाधिक प्रिय विधा कौन सी है?
मैंने कभी इस विषय पर सोचा ही नहीं। मन को जब जो अनुकूल लगा, शिद्दत के साथ लिखा। हाईस्कूल के बाद दस-ग्यारह कहानियाँ लिखीं। वे न तो छपीं न ही सुरक्षित रहीं। इन्टर की परीक्षाओं के बीच बस दुर्घटना में घायल होकर चालीस दिन अस्पताल में था, तो रात को अकेलापन कम करने के लिए पैर के नीचे नोटबुक दबाकर कविताएँ, कहानियाँ, लेख लिखे, लगभग ढाई सौ पृष्ठों का। वह नोटबुक मेरा एक अतिथि मित्र लंदन में चुराकर ले गया। लंदन प्रवास में एक वर्ष तक सारे पत्र पद्य में लिखे। अमेरिका में बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक में लगभग पाँच सौ लेख भारत के प्रसिद्ध हिंदी पत्रों में छपे। किन्तु 1971 में माँ की मौत हो जाने पर लेख, अमेरिका की चिट्ठी आदि स्तंभ-लेखन बंद हो गया और कविता की सरिता में बाढ़ आ गई। तब से आज तक कम से कम एक कविता और डायरी का एक पृष्ठ रोज लिखता हूँ। ग़ज़ल, दोहे, कुण्डलियाँ, हाइकू, छोटी और लंबी कविताएँ। आज इनकी संख्या छियालीस हज़ार से ऊपर हो गयी है। चार प्रबंध काव्यों की रचना की। 1990 में पागलपन सवार हुआ तो 250 लघुकथाएं लिख मारी। बस एक ज्वर सा चढ़ता है, फिर सरस्वती जो लिखवा दें।
– आपने शोधकार्य भी खूब किया है न?
जी, हाँ। मेरा शोधकार्य प्राय: अंग्रेजी में है लोक साहित्य और संस्कृति को केंद्र में रखते हुए अमेरिका, जापान, नीदरलैंड व भारत की शोध-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों का संग्रह का काम प्रो. किरा हॉल ने एक ग्रंथ में संपादित किया। छपास की भड़ास समाप्त हो गई है। डेढ़ सौ पुस्तकों की पांडुलिपियाँ मैंने अपने प्रिय कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के संग्रहालय को दे दी हैं छ: अंग्रेजी कविताओं के संग्रह प्रकाशित हैं डी.लिट. का शोध-ग्रंथ भी अंग्रेजी में है। संस्कृत और ओल्ड चर्च स्लावोनिया का तुलनात्मक भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन-वह हार्वर्ड में भाषा-विज्ञान विभाग में रूसी तथा समस्त स्लाविक देशों के चर्च की भाषा ओल्ड चर्च स्लावोनिक के अध्ययन का सुखद परिणाम है।
अमेरिका शिक्षा-विभाग के लिए पंजाबी की दो पाठ्य-पुस्तकों, हिंदी की तीन पुस्तकें तैयार की। पंजाबी रीडर पुस्तक आठ सौ पन्नों की थी। लंदन विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों ने उसे ‘सर्वश्रेष्ठ’ बताया।
2009 में मेरे सम्मान में किरा हॉल, प्रोफेसर कॉलराडो विश्वविद्यालय ने एक वृहद ग्रंथ संपादित किया (studies in inequality and social justice : esseys in honor of vedprakash vatuk) इसमें विश्वविख्यात इक्कीस विशेषज्ञों के विभिन्न देशों में किए गए मेरे शोधकार्य के आधार पर लिखे प्रबंध सम्मिलित हैं।
– आपकी कविताओं में मनुष्य के हित और मूलाधिकारों के तीव्र मुखर स्वर ध्वनित होते हैं, इसके मूल में क्या कारण था?
मेरा जन्म उस काल में हुआ, जब भारत में सामाजिक परिवर्तन और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष हो रहा था। मैंने आपको पहले भी बताया था कि मेरा पारिवारिक परिवेश आर्यसमाजी और स्वतंत्रता के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाला था। लिहाज़ा आंतरिक और बाह्य परिवेश का असर मुझ पर बहुत ही गहन पड़ा। दयानंद, गाँधी और माक्र्स मेरे ब्रह्मा, विष्णु, महेश थे। अमेरिका में मैं ‘लघुभारत’ के संकीर्ण संकीर्ण वृत्त में न जीकर, जहाँ आज के प्रवासी भारतीय-जिनमें लेखक भी हैं – जीते हैं, मैंने अमेरिकी जीवन जिया। तब ‘लघुभारत’ वहाँ था भी नहीं फिर मेरा परिवार भी तो अमेरिकन था विभिन्न देशों से आये प्रवासियों का। अमेरिका प्रवासियों का ही देश है। सौ से ऊपर देशों के लोग यहाँ बसे हैं। मेरे मित्रों, सहपाठियों, सहकर्मियों, श्रमिकों, बौद्धिकों में आदिवासी, अमेरिकन इंडियन, मैक्सिकन, क्यूबन, जर्मन-मतलब हर प्रकार के लोग थे, हैं। अश्वेत मित्र हैं।
– अमेरिकी अश्वेत-आंदोलन, श्रमिक व छात्र-आंदोलन, वियतनाम-इराक युद्ध आदि पर आपने बेबाक कलम चलाई है जो कि आम प्रवासी भारतीय साहित्यकार नहीं करते, इससे जुड़े महत्वपूर्ण प्रसंग हमसे साझा करना चाहेंगे?
मैंने अश्वेत आंदोलन के गाँधी मार्टिन लूथर किंग, सुभाष ब्रांड के उग्र नेता मैलकम एक्स, खेतिहर मैक्सिकन श्रमिकों के नेता सोज़र शवैज़ सुना – उन के अनुयायियों के साथ रहा, संघर्ष किया।
‘जहाँ से भी शुद्ध विचारों की वायु आती है, आने दो’ वेद मंत्र है। इसीलिए भारतीय होते हुए भी अमेरिका में हुए हर समानता, स्वतंत्रता, न्याय, मुक्ति के पक्ष में हुए आंदोलन का भागीदार हूँ। मुझे न तो निष्कासन का भय था न ही धनहीन, पदहीन होने का। इसीलिए मैंने सैकड़ों कविताएँ, लेख, गुयाना, वियतनाम, ईराक, अफगानिस्तान, बांग्लादेश के पक्ष में लिखे। अमेरिका पर हुए 11 सितंबर 2001 के आतंकवादी हमले के बाद अन्य कवियों की भाँति मैंने भी उसमें मारे जाने वाले व्यक्तियों को श्रद्धांजलि देते हुए आँसू बहाए, पर साथ ही उन लाखों, करोड़ों आदिवासियों, वियतनामियों, हिरोशिमा-नागासाकी में मरे जापानियों, बांग्लादेशियों, अफ्रीकन दासों, आशविच कैम्प में गैस-चेम्बर्स में ज़िंदा जलाए यहूदियों, जिप्सियों और ऐसे ही क्यूबा से लेकर कोरिया तक के लोगों के लिए भी, जो श्वेत विश्व के अत्याचारों के शिकार हुए।
– आपने कई हिन्दी-अंग्रेजी पत्रों का कुशल संपादन किया है, तब की पत्रकारिता और अब की पत्रकारिता को कैसे विश्लेषित करेंगे?
स्वतंत्रता से पूर्व की पत्रकारिता देश-मानवता को समर्पित मिशन का प्रतीक थी, जहाँ त्याग था, बलिदान था, देश की स्वतंत्रता के लिए मर मिटने का उन्माद था। जब संपादक के हेतु आवेदन करने वालों को पुरस्कार के लिए लिखा जाता था – कारागार। फिर भी तपस्वी साधक आते। गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा संपादित ‘प्रताप’ मेरे पिताजी मँगाते थे और पढ़कर ग्रामवासियों को सुनाते थे। 1913 में अमेरिका में प्रकाशित प्रथम हिंदी-उर्दू-पंजाबी पत्र ‘ग़दर’ में केवल एक ही विज्ञापन होता था -‘ जरूरत है – देशभक्तों की। काम – ग़दर करना। कहाँ – भारत में। ईनाम – आज़ादी या मौत।’
तब पत्रकारिता विचार – स्वातंत्रय, चरित्र-निर्माण और सेवा-त्याग का प्रशिक्षण थी। आज अधिकांशत: पत्रकारिता व्यावसायिक है, लाभ के लिए।
मैंने अमेरिका या ब्रिटेन में जो पत्र किए, वे या तो शुद्ध साहित्यिक थे – नैवेद्य और सीमान्तिका’, या देश की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए, किशोरों के लिए ‘नचिकेता’, अंग्रेजी साप्ताहिक ‘ओवरसीज़’, ‘फीजी टाइम्स’ या ‘इंडियन वॉयस’ निर्भीकता से संकीर्णता विरोधी अभियान के प्रतीक।
तमाम धमकियों के बावजूद, विज्ञापन न देने की चेतावनी की परवाह न करते हुए किसी भी साम्प्रदायिक, विघटनकारी तत्व का घोर-विरोध-हिन्दू, मुस्लिम, सिख ब्राण्ड चाहे जो भी हो। केवल भारत और मानवता को समर्पित। इसके विपरीत अन्य पत्र देखते थे कि वे किसी उग्रवादी तत्व को नाराज़ न कर दें या विज्ञापन देने वालों को।
पत्रकारिता से कमाना मेरा ध्येय न था। निर्भीकता से देश मानवता-हित की बात। युद्धोन्माद, आतंकवाद, साम्राज्यवाद, विस्तारवाद का विरोध और शांति का आवाहन। समस्त धमकियों के बावजूद मैं कभी उस पथ से विचलित नहीं हुआ हाँ, मैंने ही वहाँ ‘इंडियन वाइस’ को दो भागों में विभाजित करके अन्य पत्रों को नई दिशा दी। (हँसते हुए) कृपया इसे आत्ममुग्धता न समझें।
– स्वदेश वापसी….
भारत से मेरा निरंतर संपर्क रहा है। पहले छ:-सात साल के अन्तराल पर आना होता था पर अब तो हर वर्ष ही आना हो जाता है। मेरे लिए कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता कि मेरी कुर्सी-मेज अमेरिका के कमरे में है या भारत के। पर इतना जरूर है कि आज का साहित्यिक वातावरण खेमों में बँट गया है। आज न कोई रामचंद्र शुक्ल है न महावीर प्रसाद द्विवेदी। लिखा बहुत जा रहा है पढ़ा बहुत कम। फिर नारी विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, प्रवासी साहित्य विमर्श आदि अनेक विमर्श ने हमें संकीर्ण बनाकर रख दिया है। वामपंथी, दक्षिणपंथ आदि कृत्रिम विभाजन, अलग अधिक करता है, जोड़ता कम है। अपनी-अपनी दुकानें हैं, अपना-अपना माफ़िया गिरोह।
अंतर्राष्ट्रीय होने का नया रोग लगा है हिंदी जगत में, जबकि हमारी दृष्टि अंतर्राष्ट्रीय तो क्या राष्ट्रीय भी नहीं। वैश्विक दृष्टि तो किसी प्रवासी हिंदी साहित्यकार में नहीं दिखती। पढ़ते कम, लिखते अधिक। बस ‘लेबुल’ भुनाने हैं।
– संतुष्टि
पूर्ण संतुष्टि तो कभी नहीं होती। पर जितना मेरी सीमाओं में सम्भव है, मैंने किया। स्वान्त: सुखाय, ईमानदारी से। किसी को मेरी एक भी रचना पसंद आ जाए ….तो मैं संतुष्ट हूँ।
– जानना चहूँगी कि आजकल क्या व्यस्तता है?
भारत में विगत पाँच वर्षों के निवास में मेरी छ: पुस्तकें आई हैं – एक महाकाव्य ‘और ईसा मरता रहा’, 2200 हाइकू का एक संग्रह ‘घृणा का ब्याज’, ‘आज़ादी या मौत :ग़दर पार्टी का संक्षिप्त इतिहास’,’मेरी इजरायल डायरी : हो-ची. मिन्ह की कविताएँ, ‘पाश के काव्य-संग्रह- ‘बिखरे पन्ने क् अनुवाद, शहीद न होने का दु:ख’, (लघुकथा -संग्रह), अभी चार भागों में आत्मकथा आई है। लेखनी अपना काम कर रही है। सुमन! आपने मेरे कार्यकलापों में रुचि ली। मैं कृतज्ञ हूँ। धन्यवाद।
– मैं भी इस ज्ञानवर्धक और प्रेरक बातचीत के लिए आपकी आभारी हूँ। आपकी लेखनी सतत् प्रवहमान रहे। सादर प्रणाम।